सदगुरु का कार्य मात्र इतना की वो हमे दर्पण दिखा दे। और हम मुक्त, पढ़े ये कथा।
एक सिंहनी छलांग लगा रही थी। और छलांग के बीच में ही उसको बच्चा हो गया। वह तो छलांग लगा कर चली गई एक टीले से दूसरे टीले पर, बच्चा नीचे गिर गया। नीचे भेड़ों की एक कतार गुजरती थी। वह बच्चा भेड़ों में मिल गया। भेड़ों ने उसे पाला, पोसा, बड़ा हुआ। वह सिंह तो था, सिंह ही हुआ, परन्तु अभ्यासवश अपने को भेड़ मानने लगा। अभ्यास तो भेड़ का हुआ। भेड़ों के साथ था। भेड़ों के बीच ही पाया पहले दिन से ही। अन्यथा तो कोई प्रश्न ही न था। भेड़ों का ही मिमियाना देख कर खुद भी मिमियाना सीख गया। भेड़ों जैसा ही घसर-पसर चलने लगा भीड़ में। और सिंह तो अकेला चलता है। कोई सिंहों की भीड़ थोड़े होती है। भेड़ों की भीड़ होती है। भीड़ में तो वही चलते हैं, जो डरपोक हैं। भीड़ में चलते ही इसलिए हैं कि कायर हैं। डर लगता है।
संन्यासी वही है, जो भीड़ के बाहर निकलता है। संन्यासी सिंह है। इसलिए संन्यासी की कोई जात नहीं होती। कबीर ने कहा है, संतों की जात मत पूछना। जात होती ही नहीं संत की कोई। जात तो कायरों की होती। संत की क्या जात?
भेड़ों में गिरा, भेड़ों में बड़ा हुआ। भेड़ों की भाषा सीख ली। भेड़ों की भाषा यानी भय। जरा सी घबड़ाहट हो जाए, भेड़ें कैप जाएं तो वह भी कंपे। फिर एक दिन ऐसा हुआ कि एक सिंह ने भेड़ों पर हमला किया। वह सिंह तो देख कर चकित हो गया। वह तो हमला ही भूल गया, उसने जब भेड़ों के बीच में एक दूसरे सिंह को भागते देखा। और भेड़ें उसके साथ घसर पसर जा रही हैं। वह सिंह तो भूल ही गया भेड़ों को। उसको तो यह समझ में ही नहीं आया कि यह चमत्कार क्या हो रहा है, वह तो भागा। उसने भेड़ों की तो चिंता छोड़ दी। बड़ी कठिनाई से पकड पाया इस सिंह को। पकड़ा, तो सिंह मिमियाया, रोने लगा, गिड़गिड़ाने लगा। कहने लगा, छोड़ दो मुझे। मुझे जाने दो। मेरे सब संगी-साथी जा रहे हैं। उसने कहा, मुर्ख सुन, ये तेरे संगी साथी नहीं हैं। तेरी बुद्धि ख़राब होगयी क्या? तू पागल हो गया? पर वह तो सुने ही नहीं। तो भी उस के सिंह ने उसे घसीटा,जबरदस्ती उसे ले गया नदी के किनारे।
दोनों ने नदी में झांका। और उस के सिंह ने कहा कि देख दर्पण में। देख नदी में। अपना चेहरा देख, मेरा चेहरा देख। पहचान, फिर कुछ करना न पड़ा। बड़े डरते डरते, वह विडम्बना थी। अब यह मानता ही नहीं की सिंह हैं। और ज्यादा परिश्रम करना भी ठीक नहीं। उसने देखा। देखा, पाया, हम दोनों तो एक जैसे हैं.। तो मैं भेड़ नहीं हूं? एक क्षण में गर्जना हो गई। एक क्षण में ऐसी गर्जना उठी उसके भीतर से, जीवन भर की दबी हुई सिंह की गर्जना, सिंहनाद, पहाड़ कंप गए। दूसरा सिंह भी कैप गया। उसने कहा, अरे, इतने जोर से दहाड़ता है? उसने कहा कि जन्म से दहाड़ा ही नहीं। कैसे अभ्यास में पड़ गया, बड़ी कृपा तुम्हारी, जो मुझे जगा दिया।
सदगुरु का इतना ही अर्थ है कि हमे पकड़ ले भेड़ों के झुंड से। हम बहुत क्रोधित होसकते हैं। हम गिड़गड़ायेंगे। हम कहेंगे, यह क्या करते महाराज? छोड़ो मुझे, जाने दो। आप कहां ले जाते हो? मुझे जाने दो।
परन्तु एक बार हम सदगुरु के चक्कर में पड़ गए तो वह हमे बिना नदी में झुकाए छोड़ेगा नहीं। और एक बार हमने देख लिया कि जो बुद्ध में है, जो महावीर में है, जो सदगुरु में है, जो अष्टावक्र में है, कृष्ण में है, वही हममे है, गर्जना निकल जाएगी, *अहं ब्रह्मास्मि। मैं ब्रह्म हूं। गज उठेंगे पहाड़। कैप जाएंगे पहाड़।
हम भेड़ नहीं हैं। भीड़ में हैं इसलिए भेड़ बने हुए हैं। भीड़ से उठो। भीड़ से जगो। भीड़ ने हमे खूब अभ्यास करवा दिया है। स्वभावत: भीड़ वही अभ्यास करवा सकती है, जो जानती है। भेड़ों का दोष भी क्या? भेड़ों ने कुछ जान कर तो कुछ किया नहीं। जो जानती थीं वही सिंह के शावक को भी समझा दिया, करवा दिया।*
जो हमारे मां-बाप जानते थे वही हमे सिखा दिया। न वे जानते थे, न हम जान पा रहे हैं। जो उनके मां बाप जानते थे, उन्हें सिखा गए थे कि पढ़ते रहना तोते की तरह राम-राम। तो वे भी पढ़ते रहे। वे हमे सिखा गए हैं, कि देख, कभी राम राम मत चूकना; जरूर पढ़ लेना। रोज सुबह उठ कर पढ़ लेना; कि सूरज को नमस्कार कर लेना; कि कुंभ मेला भरे तो हो आना। तो करोड़ भेड़ें इकट्ठी हैं। भीड़ वही तो सिखा सकती है, जो जानती है। भीड़ का दोष भी क्या?